Wednesday, June 15, 2011

शर्मा जी का डिब्बा


Surprised, don't be. It's not me-It's us. Well, I met this ( yet to meet personally ) this awesome gentleman, Hindi blogger par excellence and soon to be a published author Shiv Mishra on twitter , and this is our joint effort. He blogs in Hindi here http://www.shiv-gyan.blogspot.com/ .

This is first of our 2 part post. Read on.

एक वीक-डेज वाली दोपहर. आफिस के दो बज रहे थे. आप कह सकते हैं; "किसी आफिस का बारह बजते सुना है लेकिन दो बजते हुए तो नहीं सुना." 

तो मेरा कहना यह है कि; - अब देखिये सुना तो मैंने भी नहीं. हाँ, देखा ज़रूर है. कि दो बजे का समय बहुत महत्वपूर्ण होता है. कि दो बजते ही तमाम लोग़ कसमसाने लगते हैं. कि दो बजते ही एक-दूसरे को अपनी भूख का हिसाब देते हैं जिसका मतलब यह होता है कि बड़े जोरों की भूख लगी है. कि दो बजते ही आफिस के प्यून मन ही मन बुदबुदाने लगते हैं कि साहेब लोग़ अब बुलाएँगे. किचेन से प्लेट और चम्मच लाने को कहेंगे. कि फ्रिज से ठंडा पानी लाने के लिए कहेंगे. कि चार रोटी और सब्जी क्या खायेंगे पूरे घंटे भर सतायेंगे. 


उधर प्लेट और चम्मच के जोड़े भी धुल जाने के बाद सुबह से ही सोचने लगते हैं कि पता नहीं आज किसके हत्थे चढ़ेंगे? दोनों की ज्वाइंट आकांक्षा यह रहती है कि "कितना अच्छा हो अगर आज हमदोनों मिस्टर मेहता के हाथ लगें. वे हमें कितने प्यार से पकड़ते हैं. सब्जी खाने के बाद चम्मच को ऐसे देखते हैं जैसे उससे सहानुभूति दिखाते हुए पूछ रहे हों कि दो सेकंड के लिए तुम सब्जी लादे हुए मेरे मुँह में गए थे, तुम्हें तकलीफ तो नहीं हुई? हे भगवान, आज हमें गौतम साहेब के हत्थे मत चढ़ाना. लंच के समय जब भी हमदोनों उनके हाथ में पहुँचते हैं, वे खाने से पहले कम से कम पाँच मिनट तक हमदोनों को साथ बजाते हुए "कजरारे कजरारे" गाते हैं." 


कई बार तो चम्मच के मन में यह भी आया कि वह किसी बहाने गौतम जी का हाथ छुड़ाकर उछले और सीधा उनकी नाक पर एक किक जमा दे. लेकिन बेचारा उनकी मैनेजरी का लिहाज करता हुआ चुप ही रहता है.


उधर टिफिन में ठूंसकर भरी गई रोटियां पिछले चार घंटों से टिफिन से निकलने के लिए ठीक वैसे ही तड़प रही होती हैं जैसे तिहाड़ से निकलने के लिए कनिमोई. नौ बजे मिसेज शर्मा ने उन्हें सूखे आलू की सब्जी के साथ पतली वाली टिफिन में ठूंसा नहीं कि रोटियां कसमसाने हुए अपनी किस्मत को रोने लगती हैं कि अब न चाहते हुए भी चार घंटे इस आलू की सब्जी के साथ रहना पड़ेगा. दो बजे से पहले इससे डायवोर्स के चांस नहीं हैं. सूखे आलू की सब्जी उधर अपने साथ चेंप दिए गए एक फांक आम के अचार से पीड़ित है. आम का अचार आलू की सब्जी की आँख में घुसकर उसे पूरे साढ़े पाँच घंटे रुलाता है. आम के कई फांक तो अपने साथ इतना मसाला लिए हुए चलते हैं जितना उस आलू की सब्जी की आँख में घुसकर उसे तीन दिनों तक रुलाने के लिए काफी है. आलू की सब्जी की त्रासदी यह कि वह रोने के अलावा और कुछ नहीं कर सकती. 


वैसे भी हमारी संस्कृति में उसको ज्यादा कुछ करने की इजाजत नहीं है. 


ऐसे में सब्जी यह सोचते हुए चुप रहती है कि; 'अगर मैं सब्जी न बनी होती तो मैं आलू होती. होती तो क्या, कहना चाहिए कि आलू होता. तब देखता कि मिसेज शर्मा मुझे टिफिन में कैसे रखतीं? अगर कोशिश भी करती तो मैं टिफिन के ढक्कन को ऊपर फेंकते हुए किचेन से लुढ़कते हुए सीधा ड्राइंग रूम में जाकर सोफे से टकराकर केवल इसलिए रुकता क्योंकि सोफा मेरे सामने सीमा पर खड़े हुए फौजी जैसा अड़ा रहता. लेकिन ऐसी किस्मत कहाँ कि मैं सब्जी बनूँ ही नहीं और सिर्फ आलू बनकर इधर-उधर ढुलकता फिरूं. एक बार सब्जी बनी और मैं था से थी हुई नहीं कि फिर कोई भी मेरे साथ कुछ भी कर सकता है.' 


सब्जी को पता है कि अब उसको इस कैद से छुड़ाने का काम मिस्टर शर्मा दो बजे ही करेंगे. लिहाजा वह गुलज़ार साहब की ग़ज़ल की लाइन; "दफ्न करदो मुझे कि सांस मिले, नब्ज़ कुछ देर से थमी सी है"दोहराते हुए दो बजने का इंतजार करती रहती है. 


उधर जब दो बजे शर्मा जी इन रोटियों की रिहाई का महान काम अपने हाथ में लेते हैं तब इन रोटियों को उसी तरह की फीलिंग होती है जैसी कई वर्षों तक जेल में रहने के बाद छोड़ दिए जाने पर नेल्सन मंडेला को हुई होगी. 


रोज लंच के समय टिफिन खोलते हुए शर्मा जी मिसेज शर्मा के स्पेस यूटीलाइजेशन स्किल्स की दाद मन ही मन बड़ी लाउडली देते हैं. मुंबई में रहते हुए मिसेज शर्मा ने दो खानों वाली पतली सी टिफिन में रोटियां, सब्जी, अचार और कभी-कभी दो फांक प्याज ठूंसने में महारत हासिल कर ली है. वह तो शर्मा जी ने सिले हुए पापड़ खाने से मना कर दिया है वरना मिसेज शर्मा तो उसी टिफिन में पापड़ भी रख सकती हैं. अपनी टिफिन खोलकर रोटियां निकालते हुए शर्मा जी के मन में यह बात ज़रूर आती है कि इस तरह की स्किल्स में एक्सेलेंस अचीव करने में श्रीमती जी को कितन समय लगा होगा? क्या इतनी बढ़िया स्टोरिंग वह पहले दिन से ही करने लगी होगी? या फिर रिफाइनमेंट में समय लगा होगा? कई बार तो शर्मा जी मन ही मन यह भी सोचते हैं कि श्रीमती जी अगर किसी लोजिस्टिक्स कंपनी में नौकरी करती तो हर साल उन्हें बेस्ट एम्प्लोयी का अवार्ड मिलता. या फिर मिसेज शर्मा अगर किसी पब्लिक सेक्टर कंपनी की फैक्ट्री में स्टोरकीपर होती तो कंपनी हर साल छब्बीस जनवरी के अवसर पर उनका नाम प्रेसिडेंट गोल्ड मेडल के लिए पक्का भिजवाती.


मिसेज शर्मा ने टिफिन में खाना रखने की यह स्किल मुंबई की लोकल ट्रेन में ठुंसे हुए पैसेंजर्स को देखकर सीखी या फिर मुंबई के लोकल ट्रेन चलानेवालों ने शर्मा जी के खाने की टिफिन देखकर लोकल ट्रेन के डिब्बों में पैसेंजर ठूंसकर ट्रेन चलाने का आईडिया निकाला, यह एक शोध का विषय है. आने वाले दिनों में इस विषय पर कोई छात्र पी एचडी कर सकता है, साहित्यकार कहानी लिख सकता है, कवि कविता ठेल सकता है या फिर आई आई टी में पी एचडी की डिग्री की खोज में पहुँचा कोई इंजिनीयर अपनी अपनी थीसिस लिख सकता है. दुनियाँ भर की लोजिस्टिक्स कम्पनियाँ मिसेज शर्मा से स्पेस यूटिलाइजेशन पर कंसल्टेंसी ले सकती हैं. मिस्टर शर्मा को तो यह विश्वास भी है कि मिसेज शर्मा कंसल्टेंसी दे भी सकती हैं.


रोज दो बजे दोपहर में शर्मा जी टिफिन में कैद रोटियों को आज़ाद करवाते हैं. जब वे आलू की सूखी सब्जी को प्लेट में डालते हैं तब उसे लगता है जैसे किसी ने उसे फाँसी के तख्ते से उतार कर इसलिए नीचे रख दिया क्योंकि पिछले चार घंटे से राष्ट्रपति के दरबार में इंतजार कर रही माफी की उसकी अर्जी को राष्ट्रपति ने मंजूर कर दी. अचार के फांक को आलू की सब्जी की आँखों से निकाल कर जब शर्मा जी प्लेट में रखते हैं, तब आलू की सब्जी के मन में आता है कि वह उन्हें आशीर्वाद या वरदान टाइप कुछ दे डाले लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाती क्योंकि उसे तुरंत याद आता है कि अगले दस मिनट में शर्मा जी उसे चट कर जायेंगे. 


मिस्टर शर्मा, मिसेज शर्मा, रोटियां, सब्जी, अचार और डिब्बे की यह कहानी यूं ही चलती रहती है. सभी को एक-दूसरे से शिकायत हो सकती है लेकिन कोई किसी को छोड़कर जाना नहीं चाहता.